संजय त्रिपाठी
कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। यह तो सुना था देखने को अब मिल रहा। पहले लोग कहते थे कि कानून मूर्दो से भी सच्चाई उगलवा लेती है। तब यह पल्ले नहीं पड़ता था, लेकिन अब मुझे क्या सबको पल्ले पड़ रहा है। कई बार तो मूर्दो को कब्र से निकाल कर उसका दूबारा पोस्टमार्टम किया जाता है। श्मशान घाट से हड्डियों का चूरा लेकर मृतक का इतिहास जान लिया जा रहा है। इतना सब कुछ होने के बाद भी लोग आज भी पुलिस को एक अलग नजरीये से ही देखते है। बल्कि पहले की अपेक्षा अलग नजरीये से देखने वालों की संख्या बढ़ी ही है, जबकि राज्य और केंद्र सरकार हर स्तर पर पुलिस को आम जनता की हितैसी दिखाने के हर प्रयास करने में लगी है। पहले बच्चे, बड़े सभी पुलिस वालों को सम्मान के नजर से देखते थे, लेकिन अब डर या हिकारत के नजर से देखने वाले ज्यादा मिलते है। हम भी देख रहे हैं कि कानून का हाथ अब सिर्फ भैंस खोजने, जूता खोजने मंत्रियों के जी - हूजुरी करने में ज्यादा लंबे दिखाई दे रहे है। उन्नाव कांड में पुलिस ने अभी तक ट्रक से टक्कर के कारण को नहीं समझ पाई है। अपनी लंबे हाथ इधर - उधर तो मार रही है, लेकिन वह हाथ सही दिशा में नहीं जा रहा। लगता है अभी जायेगा भी नहीं । पीड़िता और उसके वकील की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है। सेंगर साहब जेल से ही सबकुछ करने में माहिर हैं, क्योंकि पुलिस के हाथ बहुत ही लंबे होते है। योगी जी ने सरकार संभालते ही एंटी - रोमियों स्क्वायड का गठन किया। लोगों को एक उम्मीद जगी कि चलो अब बेटी - बहन छेड़ाछेड़ी से बच जायेगी। लेकिन पुलिस वालों के लंबे हाथ उसका भी तियापांचा कर डाला। अब तो दो सहपाठी छात्र - छात्राओं को एक साथ आना - जाना भी दूभर हो गया है। अगर जोड़े पार्क या मंदिर में मिल गये तो लंबे हाथ से बचने की कोई संभावना ही नहीं है। हां, जेब गरम है तभी बच सकते हैं और कानों - कान कोई नहीं जान पायेगा। मुझे तो क्राइम पेट्रोल की स्टोरी देख कर बड़ी हैरानी होती है। मुझे तो कभी - कभी ऐसा लगता है कि पुलिस महकमा के तरफ से सोनी जी को इस सीरियल को दिखाने के लिए एक बहुत बड़ा नजराना तो नहीं मिलता है। देश के हर कोने से एक घटना का रूपांतरण दिखाते है। सीरियल की पुलिस जीतनी तेज - तर्रार दिखाई देती है, उसका मंेहनत, लग्न , काम के प्रति समर्पण और अपनी जिम्मेदारी दिखाई देती है तो ऐसा लगता है कि पुलिस के हाथ लंबे ही होते है। लेकिन जब सीरियल से अलग टीवी चैनलों में, अखबारों में तथा थानों व चैकी में पुलिस के समक्ष रू-ब- रू होने का मोका मिलता है तब लगता है कि जितना कहा जाता उतना ही नहीं उससे ज्यादा पुलिस के हाथ लंबे है। एक दौर था जब पुलिस के खिलाफ एक लाईन भी अखबारों में छप जाती थी तब उस क्षेत्र का अधिकारी उस अखबार नवीस से इसका कारण पूछता और उसका सामधान करता। उस समय लगता था कि पुलिस ही सबसे ज्यादा अपनी जिम्मेदारी समझने वाली महकमा है। आज पूरा अखबार ही छप जाता है पुलिस के कारनामों से फिर भी कोई सुगबुगाहट नहीं होती। ' हम आह भी लेते है तो हो जाते हैं बदनाम। वो कत्ल भी कर जाते तो चर्चा भी नहीं होती। ' नए एसएसपी साहब जनपद में अपने महकमें पर नजर - ए - इनाएत तो किये हैं देखते है अब पता चलेगा कि पुलिस की हाथ कितनी लंबी है।